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  • হরিদাস পাল  কাব্য  তর্জমা

  • मलय रॉयचौधरी की कविताएँ

    Malay Roychoudhury লেখকের গ্রাহক হোন
    কাব্য | তর্জমা | ২৩ নভেম্বর ২০২২ | ৯৫৬ বার পঠিত | রেটিং ১ (১ জন)
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    1. नमक और नमकहराम

    अपनी जीभ से छुआ था, 
    मेरे जिस्म को तुमने
    अवंतिका, और कहा था – 
    "आह, लावणी सौंदर्य,
    दिलों के दिल.. 
    मर्दानगी की खुशबू..."

    उस दिन, 
    पुलिसिया हिरासत से 
    अदालत की ओर
    कमर में बंधी थी रस्सी, 
    और हथकड़ी में हाथ
    उपद्रवी हत्यारों के मध्य, 
    चल रहा था मैं;
    तमाशा देखती भीड़, 
    सड़क के दोनों तरफ।

    उन विश्वासघाती जनों, 
    जिन्होंने स्वेच्छा से
    अदालत में दी शहादत, मेरे खिलाफ, 
    ने कहा,
    कटघरे में खड़े होकर – 
    "ना जी!
    मीठा था वो पसीना, 
    ना कि नमकीन;
    फिर नमकहरामी 
    का तो सवाल ही नहीं -
    हमें नमकहराम ना बुलाया जाए।"

    अनुवाद - नून ओ नीमकहरामी (मलय रॉय चौधरी)
    कोलकाता - 2005

    शमशान (1992)

    एक दोपहर, 
    धान की भूसी उड़ने के मध्य
    एक मृत उल्लू के शव से उड़ते पिस्सू-शावक
    चुरा रहे थे वसा।

    उनके हाथों में, 
    मूढ़ी की भीनी-सी खुशबू
    आक के फूलों के, 
    रुंधे गले से निकली चीखें, 
    धीमे से उठाकर
    जैसलमेर की भंगुर,  
    मंद बयार में
    पर-पीड़नशील सुख!

    सर्पीले शहर में, 
    रक्त-रंजित दीवार घड़ी की बड़ी सुई
    और आग की दप्त रोशनी में 
    मुस्कुराते इंसानी चेहरे।
    फड़फड़ाते कबूतर, 
    फटे दस्तावेजों की-सी आवाज में, 
    थोड़ी सी
    जीते हुए अपनी ज़िंदगी।

    सूर्यास्त के रंग सी दीप्त भौहें,
    सवार, ज्वार के दौरान, 
    एक मनहूस नौका पर
    रूखे लेवनी में लिपटा शव।
    बढ़ा मैं, 
    स्वर्णिम नद-मुख की ओर
    हथेली में पकड़े हुए, 
    एक क्षणिक चक्रवात की एक गांठ।
    फेंके हुए धान के लावों का 
    छाती पीटता रुदन -
    सिर्फ वही मेरा था।

     
    1. एक अर्ध सरकारी प्रतिवेदन


    शस्त्रहीन सेना की प्रार्थना
    चुल्लू भर पानी का मोल – 
    10 रुपए।

    भूमिगत जल राशि का 
    उद्गम-स्थल से विच्छेद
    आदतन ईर्ष्या मिश्रित घृणा
    कठोर शब्दों द्वारा सीमा पर प्रतिबंध
    लोक निर्माण विभाग का पतन।

    टमाटर के खेत में, 
    हाथ में लेकर डाकबद्घ मत
    पड़ा है, 
    मौलिक मंथर मनुष्य, 
    अंतहीन अपेक्षा में,
    संसद के लिए महत्वाकांक्षी जूते
    कहने दो उन्हें, कुछ भी – 
    खाओ धोखे!

    हुंह, 
    जैसे धान के खेत डरते हों, 
    शेर की दहाड़ से
    कृषक-कन्या आज मंत्रालय में बैठी है।

    फुटबॉल के मैदान के
    कोने में लगी,
    एक सीधी चोट से हुई
    पुत्र की मृत्यु पर, 
    शोकाकुल है – 
    एक थका, डरपोक इंसान।

    स्वतंत्रता संग्राम की 
    समस्या का हल
    अंकित है – 
    मृतक के माथे पर – 
    एक अकाट्य सत्य!

    (एकटी अधा-सोरकारी प्रोतिवेदन - 1996)

     
    1. ध्रुपद धोखेबाज


    ध्रुपद धोखेबाज! 
    उतर आओ पालकी से!
    गुलामी छोड़ दी है मैंने
    एक उबाल उमड़ रहा है, 
    जिस्म में
    कमर से गर्दन तक।

    यह कोई मुफ़्त लंगर नहीं,
    जहां चीनी थाल लिए, करो तुम
    अपनी बारी का इंतज़ार।

    ओ अनछुए धन! 
    आओ लिए अपनी 
    साबुत मादकता
    बेरोजगारों के मध्य, 
    सब्जपोश तितली की तरह;
    पैराशूट से झूलती घंटियों का शोर, और
    आरक्षियों द्वारा नज़रबंद, 
    और मेरे पत्रों का दोषान्वेषण।

    स्वार्गिक स्वामी - बेड़ियों में कब तक?
    उठ खड़ा होऊंगा, चारों पैरों पर, और
    तोड़ दूंगा तुम्हारी गर्दन
    चढ़, मक्के के ढेर पर, लहराऊंगा
    अपने मेंहदी-सन केश, भूसे के मंच से, ओह,
    ध्रुपद धोखेबाज! आ जाओ खुद से
    वर्ना तुझे दिखाऊंगा मैं - नर्क - द्वार!

     
    1. प्रचण्ड विद्युतीय काष्ठकार


    ओह, मैं मर जाऊंगा, मर जाऊंगा, मर जाऊंगा।
    दग्ध उन्माद से तड़प रहा, ये मेरा जिस्म
    क्या करूं, कहां जाऊं, जानता नहीं; ओह, थक गया हूं मैं।
    सारी कलाओं के पुष्ठ पर लात मार, चला जाऊंगा, शुभा! 
    शुभा - जाने दो मुझे, और छुपा लो, अपने आंचल से ढंके वक्ष में।
    काली - विनष्ट, केसरिया पर्दों के खुले साए में
    आखिरी लंगर भी छोड़ रहा है मेरा साथ, सारे लंगर तो उठा लिए थे मैंने!
    अब और नहीं लड़ पाऊंगा, लाखों कांच के टुकड़े प्रांतष्थ में चुभते हुए
    जानता हूं, शुभा, अपनी कोख फैलाओ, समेट लो - शांति दो मुझे।
    मेरी हर नब्ज़, एक उद्दत्त रुदन का गुबार, ले जा रही है हृदय तक
    अनंत वेदना से संक्रमित - मस्तिष्क प्रस्तर सड़ रहा है!
    क्यूं नहीं तुमने मुझे जन्म दिया, एक कंकाल के रूप में?
    चला जाता मैं दो अरब प्रकाश वर्ष दूर - और नतमस्तक हो जाता खुदा के समक्ष
    पर, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कुछ भी नहीं।
    उबकाई आती है, एक से अधिक चुम्बन से।
    भूल जाता हूं, कई बार मैं 
    बलात् संभोग के वक्त, सामने पड़ी स्त्री को
    और लौट आता हूं अपनी काल्पनिक
    दिवाकर समवर्णी - तप्त वस्ती में।
    नहीं पता मुझे, ये क्या है, पर ये मेरे अंतर्मन में हो रहा है!
    नष्ट कर दूंगा सब कुछ, चकनाचूर कर डालूंगा
    बुलाऊंगा, और अपनी वासना से उद्धत्त कर दूंगा शुभा को।
    आवश्यक है - शुभा का परित्याग
    ओह मलय!
    कलकत्ता, मानों घृणित - पिल्पिले रक्त - रंजित - फिसलाऊ
    मानवीय अंगों का जुलूस बन चुका है।
    पर खुद का क्या करूंगा, पता नहीं मुझे
    क्षीण होती जा रही है मेरी स्मृति
    मृत्यु की ओर अकेला ही जाने दो मुझे।
    ना मुझे संभोग सीखना पड़ा, ना ही मौत
    ना ही सीखना पड़ा, मूत्र के पश्चात, शिश्न से आखिरी टपकती बूंद को 
    झाड़ने की जिम्मेदारी
    ना ही सीखना पड़ा - अंधेरे में शुभा के पास जाकर लेटना
    ना फारसी चमड़े का इस्तेमाल - 
    नंदिता के वक्ष पर लेटने के दौरान।
    जबकि मैं चाहता था आलिया-सी स्वस्थ आत्मा
    ताजी चीनी गुलाब-सी कोख
    फिर भी अधीन हो गया मैं - अपने मस्तिष्क के विचार  - प्लावन में
    समझ नहीं पा रहा, क्यूं फिर भी मौजूद है मेरी जिजीविषा!
    सोचता हूं, अपने एईयाश, सवर्ण, चौधुरी खानदान के पूर्वजों के बारे में
    मुझे कुछ नया और अलग करना चाहिए।
    सोने दो मुझे, एक आखिरी बार,
    शुभा के स्तनों से, नर्म बिस्तर पर,
    याद आ रही है मुझे, वो तेज चमकार, मेरे जन्म के क्षण की।
    देखना चाहता हूं, मैं अपनी मौत को, खुद - मारने से पहले
    दुनिया को कुछ लेना - देना नहीं है, मलय रॉय चौधरी से।
    शुभा, सोने दो मुझे थोड़ी देर
    अपने हिंसक चंदीले गर्भाशय की आगोश में।
    शांति दो मुझे, शुभा, मुझे शांति पाने दो।
    मेरे पापी अस्थि पिंजर को धुल जाने दो, अपनी माहवारी के रक्त स्राव में।
    तुम्हारी कोख में मुझे बना लेने दो, खुद को, अपने ही वीर्य से।
    क्या में ऐसा ही होता, अगर कोई और होते मेरे वालिदैन?
    क्या मलय,उर्फ मैं, संभव था, किसी और वीर्य की बूंद से?
    क्या में मलय ही होता, मेरे पिता की किसी रखैल के गर्भ में?
    क्या मैंने, शुभा के बिना, खुद को
    अपने मृत भाई की भांति, एक पेशेवर सज्जन बनाया होता?
    ओह, जवाब दो, कोई तो जवाब दो!
    शुभा, आह शुभा
    तुम्हारी झीनी कौमार्य के पार, देखने दो मुझे संसार को
    आ जाओ, इस हरे बिस्तर पर
    जैसे चुंबक सी प्रबल शक्ति से, खिंच जाती हैं धनाऋण किरणे।
    याद आया मुझे, 1956 के अदालती फैसले का वो खत
    तुम्हारी भगन-शिश्निका के आस पास 
    मक्कारी की मालिश हो रही थी।
    तुम्हारे स्तनों में दुग्ध धाराएं बनने लगीं थीं
    मूर्ख यौन संबंध, जो बदल गया था, गर्भ में, 
    लापरवाही से।
    आआआआआआ आह
    नहीं जानता मैं, कि में मरूंगा या नहीं,
    अधीर हृदय की थकान के साथ - फिजूखर्ची उफान पर थी।
    मैं नष्ट-भ्रष्ट कर दूंगा
    कला को समर्पित - सब कुछ टुकड़े टुकड़े कर दूंगा
    कोई और राह नहीं, कवित्त से - अपघात के सिवा!
    शुभा
    अपनी स्मरणातीत, असंयम योनि में आने दो मुझे
    शोक-हीन प्रयत्न के बेतुकेपन में
    मदांध हृदय के सुनहरे पर्णहरिमा में!
    क्यों ना मैं खो गया, अपनी मां की मूत्र नली में ही?
    क्यूं नहीं मैं बह गया, अपने पिता के मूत्र में, हस्त मैथुन के पश्चात।
    क्यूं ना मैं दिंब प्रवाह में मिल गया, या फिर मुख़ श्लेष्मा में?
    उसकी बंद लापरवाह आंखें, मेरे नीचे
    भयावह व्यथित होता हूं मैं, जब छीजते देखता हूं, आराम को,
    शुभा
    एक अबला रूप दिखाकर भी, स्त्रियां हो सकती हैं - भीषण कपटी
    आज, ऐसा प्रतीत होता है, कि स्त्री जैसा विश्वासघाती कोई नहीं, और
    मेरा भयातीत हृदय, दौड़ रहा है, एक असंभव मृत्य की ओर
    फूटी धरती से निकल, चक्रित जल धाराएं मेरी गर्दन तक आ रही 
    मर जाऊंगा मैं
    ओह, क्या हो रहा मेरे अंतः में?
    अपने ही हाथ और हथेली को हिला सकने में असक्षम
    मेरे पजामे पर चिपके सूखे वीर्य,
    से निकल पड़े हैं, अपने पर फैलाए
    तीन लाख बच्चे - शुभा के वक्ष स्थल की तरफ
    मेरे रुधिर से लाखों सुइयां अब कावित्त की तरफ भागती हुई
    ज़िद्दी पैर मेरे, अब उतारू हैं - एक निषिद्ध छलांग लगाने को
    मृत्यु घातक संभोग राशि में उलझ, शब्दों के सम्मोहक साम्राज्य में
    हिंसक आइनों को कमरे की हर दीवार पर लटका हुआ, मैं देख रहा हूं
    कुछ नंगे मलय को खुला छोड़ते ही, उसका असंगठित संघर्ष!

    अस्तित्व (1985)

    सन्न- आधी रात को दरवाजे पर दस्तक.
    बदलना है तुम्हे, एक विचाराधीन कैदी को.
    क्या मैं कमीज़ पहन लूँ? कुछ कौर खा लूँ?
    या छत के रास्ते निकल जाऊँ?
    टूटते हैं दरवाजे के पल्ले, और झड़ती हैं पलस्तर की चिपड़ियाँ;
    नकाबपोश आते हैं अंदर और सवालों की झड़ियाँ-
    "नाम क्या है, उस भेंगे का
    कहाँ छुपा है वो?
    जल्दी बताओ हमें, वर्ना हमारे साथ आओ!"
    भयाक्रांत गले से कहता हूँ मैं: "मालिक,
    कल सूर्योदय के वक्त,
    उसे भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला".

    अस्तित्व(१९८५)

    प्रस्तुति

    कौन कहता है कि बर्बाद हूँ मैं ?
    बस यूँ, कि विष-दन्त नख-हीन हूँ?
    क्या अपरिहार्यता है उनकी ?
    कैसे भूल गए वो खन्जर?
    उदर में मूठ तक घुसा हुआ?
    बकरे के मुँह में इलायची की हरी पत्तियाँ,
    वे सब घटनाएँ ? घृणा-कला, क्रोध-कला, युद्ध-कला !
    बन्धक युवती सन्थाल;
    फ़टे फ़ेफ़ड़ों से सुर्ख, खुखरी की चमकती बेचैनी ?
    वो सब?
    हृदय के खून से लथपथ, खिंचे हुए गर्वान्वित चाकू?
    गीतहीन हूँ मैं, संगीतहीन- सिर्फ़ चीत्कारें
    जितना खोल सकता हूँ मुख-
    निर्वाक वन की भेषज़ सुगन्ध;
    हरम - सन्यास या अंध-कोठरी.
    मैंने कभी नहीं कहा, "जिव्हा दो, जिव्हा
    वापस लो कराहें!
    दाँत भींचे हुए, सहनशक्ति, वापस लो!"
    निर्भय बारुद कहेगा: "एक मात्र शिक्षा है मूर्खता".
    हाथ-हीन, अपंग
    दांतो में खन्जर दबाए, कूद पड़ा हूँ, जुए कि बिसात पर.
    घेर लो मुझे, चारों ओर से
    चले आओ, जो जहाँ हो, नौकरीशुदा शिकारी के जूते में-
    जरासन्ध के लिंग, जिस तरह विभाजित
    हीरों की झुलसती आभा
    हाथ पैर चलाने के अलावा और कोई ज्ञान, बचा नहीं जगत में
    सेब के जिस्म की तरह मोम-मखमली नाज़ुक स्नेह
    समागम से पहले पँख खोल कर रख देगी चींटी.
    खम ठोंक कर मैं भी ललकारता हूँ ये विकल्प---
    दुनिया को खाली करो! निकलो, निकल जाओ सर्वशक्तिमान!
    बंदर के खुजाने वाले चार हाथों में
    शन्ख-चक्र-गदा-पद्म:
    अपने ही पसीने के नमक में लवण- विद्रोह हो
    बारुद धाग के साथ धमाके की ओर, चलता रहे चिंगारी
    वाक फ़सल के दुकानदारों, चले आओ!
    शरीर में अन्धकार लीप-पोत कर
    पिल्लों के झगड़े से गुलज़ार रातों में
    कीटनाशक से झुलसे-अधमरे फ़तिंगों के दोपहरों में,
    जमीनी ज्ञान से फ़िसलते केंचुए, ऊपर आओ-
    खन्जर के लावण्य को फ़िर से इस इलाके में वापस लाया हूँ मैं.
     
    1. प्रस्तुति(१९८५)


    मोटर-बाईक

    मोटर-बाईक येज़्डी-य़ामाहा पर हूँ मैं
    जब फ़लक की चुनौती और रेत की आँधी के मध्य
    खूबसूरत, सजावटी गुबार-से, मेरे पैरों के निकट फ़टते हैं;
    बिना हेल्मेट के
    और अस्सी की रफ़्तार में हवा को चीरता,
    मध्य-ग्रीष्म की चाँदनी तले
    खोती हुई सुदूर ध्वनियाँ
    तेज़-चाल लौरियाँ पलक झपकते गायब
    सोचने के वक्त से महरुम; पर हाँ
    अपघात किसी भी समय संभावित,
    भंगार में बदल जाऊँगा; सूखाग्रस्त खेत में ढेर..
    (’मोटर-बाईक)
     
    मानव-शास्त्र

    मैं लुटने को तैयार हूँ, 
    आओ, ओ घातक चमगादड़ !
    फ़ाड़ दो मेरे कपड़े,
    उड़ा दो मेरे घर की दीवारें
    बन्दूक चलाओ मेरी कनपटी पर 
    और मुझे कारा में पीटो.
    फ़ेंक दो मुझे चलती ट्रेन से: 
    बंधक रखो और नज़र रखो मुझपे;
    मैं एक भू-गर्भीय यंत्र हूँ, 
    परमाणु युद्ध की झलक देखने को जीवित
    एक अधर्मी खच्चरी का 
    नीले-लिंगी अश्व द्वारा गर्भाधान..
    (’प्रौत्योघात)

    दुविधा 

    घेर लिया मुझे, 
    वापसी के वक्त. 
    छह या सात होंगे वे. 
    सभी हथियारबंद. 
    जाते हुए ही लगा था मुझे
    कुछ बुरा होने को है. 
    खुद को मानसिक तौर पर
    तैयार किया मैंने, 
    कि पहला हमला 
    मैं नहीं करूँगा.
    एक लुटेरे ने 
    आस्तीन पकड कर कहा: 
    लडकी चाहिए क्या?
    मामा! चाल छोड कर यहाँ कैसे?
    खुद को शांत रखने कि कोशिश मे 
    भींचे हुए दाँत. 
    ठीक उसी पल 
    ठुड्डी पर एक तेज़ प्रहार
    और महसूस किया मैंने, 
    गर्म, रक्तिम, झाग का प्रवाह.
    एक झटका सा लगा, 
    और बैठ गया मैं - गश खाकर.
    एक खंजर की चमक; 
    हैलोजन की तेज़ रोशनी का परावर्तन
    और एक फ़लक पर राम, 
    और दूसरी पर काली के चिन्ह.
    तुरन्त छँट गयी भीड. 
    ईश्वरीय सत्ता की शक्ति
    शायद कोई नहीं जान सकता. 
    जिन्नातों की-सी व्यवहारिकता:
    मानव-मन की दुविधा- 
    प्रेम से प्रेम नहीं कर सकता.
    वे छह-सात लोग, 
    घेर रखा था जिन्होने मुझे;
    रहस्यमयिता से गायब हो गये.
    ( दोतन – १९८६)

     
    1. बदला मनुष्य

    खतित; धर्म-च्युत:
    और ज़िहाद को मुखातिब.
    राजश्री-हीन, एक सम्राट
    पतित स्त्रियाँ- हरमगामी.
    नादिर शाह से तालीमशुदा
    तलवार को चूम, जंग को तैयार
    हवा पर सवार घोडी;
    मशालयुक्त मैं घुडसवार.
    टूटे-बिखरे जंगी शामियानों की तरफ़
    बढता हुआ मैं.
    धू-धू जलते नगर
    के दरमियान;
    एक नंगा पुजारी-
    शिवलिंग के साथ
    फ़रार.

    पलटा मानुश (1985)

    रक्त-गीत
    अवन्तिका! छापा पड़ा था, मेरे घर में, आधी रात को, तुम्हे ढूंढते हुए
    इसकी तरह नहीं, ना ही उसकी तरह, और उनकी तरह तो बिल्कुल भी नहीं
    तुलना-हीन: इसकी, उसकी या किसी से भी
    क्या किया है मैंने, कावित्त के लिए, धधकते, लावा उगलते ज्वालामुखी में प्रवेश करके?
    क्या हैं ये? क्या हैं ये? घर की तलाशी का परिणाम
    कावित्त का? नशेमन भूरे बच्चे, पिता की टूटी अल्मारी से
    कावित्त का! पुराने बुँदिले बक्से को फ़ाड़कर निकली हुई माँ की बनारसी साड़ीयाँ
    कावित्त का! साँसें दर्ज़ हैं, जब्ती-सूची में
    कावित्त का? दिखाओ, दिखाओ मुझे, और क्या क्या निकल आ रहा है?
    कावित्त का! शर्म करो; लड़की द्वारा आधे-चाटकर परित्यक्त लड़के! मरो, तुम मरो
    कावित्त का! लहरों को चीरती शार्क चबा जाति हैं माँस और हड्डियाँ
    कावित्त का! एबी नेगेटिव सूर्य, क्षुद्रांत की गाँठों से
    कावित्त का! अधीर पदचिन्हों मे सहेजे  घुँटी रफ़्तार
    कावित्त का! मल-मूत्र से भरे कारा में नाजुक तीखी-चमक
    कावित्त का! भँवरे के कंटकी पैरों से चिपका सरसों का पराग
    कावित्त का! लावणी-सूखे खेत मे गंदे लंगोट मे लिपटा एक भूखा किसान 
    कावित्त का! लाशखोर गिद्धों के परों पर चिपके सड़ते खून के छींटे
    कावित्त का! नाम द्वेषपूर्ण भीड़ में गुम एक उष्ण शतक 
    कावित्त का! तुम मरो, तुम मरो, तुम मरो, आखिर मरी क्यूँ नहीं तुम?
    कावित्त का! मुँह में तुम्हारे झोंस दी गयी है आग, तुम्हारे मुँह में है आग!
    कावित्त का! तुम मरो, मर जाओ तुम, मर जाओ तुम
    कावित्त का! इसकी तरह नहीं, ना ही उसकी तरह, और उनकी तरह तो बिल्कुल भी नहीं
    कावित्त का! तुलना-हीन  इसकी, उसकी या किसी से भी
    कावित्त का! अवन्तिका, ढूंढने आए थे तुम्हे, आखिर क्यूं नहीं अपने ही साथ ले गए वो!

    प्रेम और नख-तराशी
    टैगोर, 
    ये आपके लिए, 
    एक सौ पचास साल बाद:
    कौन काटा करता था 
    आपके नख, विलायती धरती पर - 
    वो विदेशी लड़की? 
    या वो व्यभिचारिणी?
    आपकी एक भी तस्वीर नहीं है, जिसमें
    कमवयस्क महिलाओं की गोद मे हों आपके हाथ
    जो काट रही हों आपके नाखून; 
    या आपके पैर 
    ओकांपो के घुटने पर?
    शायद, वो लड़कियाँ, 
    जिनके कंधों पर गाँधी रखते थे
    अपनी बाँहें, 
    काटा करती हों उनके नख. 
    आप जानते ही हो, 
    अत्यंत तकलीफ़देह है
    पकी उम्र में खुद के पैरों तक 
    नेल-कटर ले जा पाना  
    ओह, मेरे जैसे मर्द, जो विहीन हैं 
    अल्प-वयस्क लड़कियों के संसर्ग से
    परिचित हैं – 
    बुढ़ापे से प्रेम के विचित्र अनुरोध.
    गप्पी कहते हैं, 
    सुनील गाँगुली ने रखी थी – 
    हर नाखून के लिये अलग
    एक संघर्षरत कव्यित्री. 
    जॊय गोस्वामी की भी
    कुछ ऐसी ही प्रवृत्ती थी; 
    लड़कियाँ आँखें मूँदे उतर जाती थी 
    इस दलदल में.
    मैंने खुद देखा है, 
    शक्ति चट्टोपाध्याय की प्रेमिका को
    चाइबासा के छोटे से कमरे मे, 
    उनके नाखून काटते.
    क्या बिजोया के लिए 
    शरत ने भी ऐसा ही किया था?
    यशोधरा, 
    क्या त्रिनंजन ने कभी 
    काटे तुम्हारे नख?
    सुबोध, क्या तुमने कभी उठाए 
    मल्लिका के पैर
    अपनी गोद मे, 
    और काटे उनके नाखून?
    कवि के पैरों पर बस एक नज़र
    और समझ आ जाएगी तुम्हे 
    उनकी तन्हाई की इन्तेहाँ.
    जिबनानन्द की सोचो; 
    ढूँढ रहे हैं वो
    एक हज़ार साल से, 
    बाणलता को, 
    अपने नाखून कटवाने को. 
    (नोख कटा ओ प्रेम)
    मुम्बई २०१०

    दु:श्चरित्रता
    वे, 
    जो पीटते हैं हमें, 
    मृत्युपर्यन्त, 
    खाप पन्चायत के 
    निर्णय के पश्चात, 
    उन्होंने
    तुम्हे भी नहीं बख्शा, अवन्तिका! 
    हम सड़ी हुई लाशें
    बह रहे हैं हुगली नदी में; 
    आखिर क्या अपराध था हमारा?
    तुम दल-प्रमुख की पत्नी, 
    मैं सिर्फ़ एक बेअदब नाचीज़.
    पिछले ३३ सालों मे 
    साम्यवाद को मिली, 
    अनंतहीन प्रशंषा;
    प्रेमियों को क्या मिला? 
    किनके लाभ के लिये थीं 
    वो ग्रंथें -
    प्रेमियों की 
    सड़ी लाशों के अवशेष, 
    जो भी हैं.
    बदल चुके हैं, 
    कोल्हू के बैल में,
    निकम्मे पार्टी के स्वयंसेवक. 
    बेहतर है, 
    हम घुलकर विलीन हो जाएँ, 
    इन लहरों में,
    और बह जाएं 
    अथाह समन्दर में, 
    एक दूसरे में लिपटे हुए.
    (अमरत्व) कोलकाता २००६

    सैनिटरी नैपकिन
    प्रेम, उस लड़की की तरह है, जिसे
    स्कूल छोड़ देना पड़ता था
    हर माह, साढ़े तीन दिन
    पहनना पड़ता था
    कपड़े में बाँध सूखे घास, 
    और बरसात के दिनों में, 
    चुँकि घास हरी होती है
    तो, कपड़े में राख बाँध,
    ताकि सोख सके 
    मासिक स्राव - 
    और अकेली बैठे, 
    किताबों से दूर.
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  • কাব্য | ২৩ নভেম্বর ২০২২ | ৯৫৬ বার পঠিত
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